जूनागढ़ ( JUNAGADH )

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पश्चिमी भारतीय राज्य गुजरात का एक शहर है। महाबत मकबरा एक स्थानीय शासक का 19वीं सदी का विशाल मकबरा है, जो भारत-इस्लामी वास्तुकला के जटिल विवरणों को प्रदर्शित करता है। लगभग 300 ईसा पूर्व स्थापित उपरकोट किले की प्राचीर से शहर के दृश्य दिखाई देते हैं। किले के भीतर पत्थरों को काटकर बनाई गई सीढ़ी आदि कादी वाव और नवघन कुवो के अलावा बौद्ध गुफाएं भी हैं। पश्चिम में, दरबार हॉल संग्रहालय एक पूर्व महल में स्थित है।

पर्यटक स्थल:

  1. गिर राष्ट्रीय उद्यान और वन्यजीव अभयारण्य: यह स्थान एशियाई शेरों के लिए प्रसिद्ध है और यहाँ शेर सफारी का आनंद लिया जा सकता है।
  2. सोमनाथ मंदिर: जूनागढ़ के पास स्थित यह मंदिर हिन्दू धर्म का एक महत्वपूर्ण तीर्थ स्थल है।
  3. अशोक का शिलालेख: जूनागढ़ में स्थित यह शिलालेख मौर्य सम्राट अशोक द्वारा 250 ईसा पूर्व में लिखा गया था।
  4. महाबत मकबरा: यह मकबरा अपने अद्वितीय इस्लामी और यूरोपीय वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।
  5. गिरनार पर्वत: यह पर्वत जैन धर्म और हिन्दू धर्म के तीर्थ स्थल के रूप में जाना जाता है। यहाँ कई मंदिर और धार्मिक स्थल हैं।

प्रमुख स्थल:

  1. ऊपरकोट किला: यह किला कई शताब्दियों से खड़ा है और इसमें अद्भुत वास्तुकला और गुफाएं हैं। यहां पर नवघन कुआं और अद्भुत बांध भी देखने को मिलते हैं।
  2. बुद्धिस्ट गुफाएं: ये गुफाएं तीसरी से चौथी सदी की मानी जाती हैं और इसमें उत्कृष्ट नक्काशी और वास्तुकला है।
  3. दामोदर कुंड: यह एक पवित्र जलाशय है और यहां कई हिन्दू धार्मिक अनुष्ठान होते हैं।
  4. सस्सी समाधि: यह एक प्राचीन इस्लामी मकबरा है जो अपनी उत्कृष्ट वास्तुकला के लिए प्रसिद्ध है।

ऊपरकोट किला ( Uparkot Fort )

मौर्य साम्राज्य के चंद्रगुप्त द्वारा 319 ईसा पूर्व में निर्मित, ऊपरकोट जूनागढ़ के मध्य में एक प्राचीन किला है। 2300 साल से भी ज़्यादा पुराना, कुछ जगहों पर 20 मीटर तक ऊँची दीवारों वाला ऊपरकोट ही वह किला है जिसने जूनागढ़ को एक समय में 12 साल की घेराबंदी का सामना करने में मदद की थी। किले में, हिंदू, मुस्लिम और इस्लाम प्रभाव सहित इतिहास के विभिन्न चरणों के अवशेष और खंडहर देखे जा सकते हैं। रियासतों में, जूनागढ़ सौराष्ट्र क्षेत्र का सबसे शक्तिशाली राज्य था और मुहम्मद तुगलक और अहमद शाह के कठिन अभियानों से बच गया था। कहीं-कहीं इसके बाहरी हिस्से की तरह, महल के अंदरूनी हिस्से भी इतिहास प्रेमियों को आकर्षित करते हैं। किले के अंदर एक जुम्मा मस्जिद है, एक मस्जिद जिसमें एक दुर्लभ छत वाला आंगन और नक्काशीदार अष्टकोणीय द्वार हैं। मस्जिद के पास बौद्ध गुफाओं का एक समूह है, जो वास्तव में 2000 साल पहले चट्टानों को तराश कर बनाए गए मठवासी क्वार्टर हैं। किले की दीवारों के अंदर 300 फीट गहरी खाई है, जिसमें कभी मगरमच्छ रहते थे, ताकि अगर कोई हमलावर ऊंची किलेबंदी को पार करने में कामयाब हो जाए, तो वह या तो ऊपरी युद्ध के मैदान में आ जाए या मगरमच्छों से भरी खाई में गिर जाए। इसके अलावा, ध्यान देने योग्य बात यह है कि मुख्य हॉल में मौसम की मार झेल चुके नक्काशीदार खंभे लगे हुए हैं। इस तीन मंजिला परिसर में, दो चट्टानी सुंदर बावड़ियाँ हैं जिनका नाम आदि कादी वाव और नवघन कुवो है। ये सभी बावड़ियाँ लगभग 1000 साल पुरानी हैं और कुएँ के शाफ्ट के चारों ओर शानदार सीढ़ीदार सर्पिलों से सजी हैं।

गिर नेशनल पार्क ( Gir national park)

गिर नेशनल पार्क भारत के सबसे प्रसिद्ध चिड़ियाघरों में से एक है। इसे सासन गिर या गिर वन के नाम से भी जाना जाता है। गिरनार वन के करीब एशियाई शेरों के लिए मशहूर गिर नेशनल पार्क गुजरात राज्य में लगभग 1412 वर्ग किलोमीटर में फैला हुआ है। दक्षिणी अफ्रीका के अलावा विश्व में यही एकमात्र ऐसी जगह है जहां जहां शेरों को अपने प्राकृतिक आवास में रहते हुए देखा जा सकता है। 350 से अधिक शेरों और 300 से अधिक बाघों के इस इलाके में घूमना बेहद रोमांचक अनुभव होता है। गिर नेशनल पार्क केवल शेरों के लिए नहीं बल्कि हिरण, सांभर, चीतल, नीलगाय, चिंकारा, बारहसिंगा, भालू और लंगूर जैसे कई जानवरों का घर भी है। दर्शकों के लिए गिर वन्य अभयारण्य मध्य अक्टूबर महीने से लेकर मध्य जून तक खोला जाता है। कहा जाता है कि जूनागढ़ के नवाब शेरों के आखेट के लिए यहां आया करते थे। शेरों की घटती संख्या देखकर उन्होंने अपना मन बदल दिया और नवाबों से इनका शिकार रोकने का आग्रह किया तभी से यहां शेरों का संरक्षण शुरू हो गया। कहा जाता है कि उस समय गिर में केवल 15-20 शेर ही बचे रह गए थे। ‘गिर’ को सन् 1969 में वन्य जीव अभयारण्य बनाया गया था। कुछ ही वर्षों के बाद इसका विस्तार कर इसे राष्ट्रीय उद्यान के रूप में स्थापित किया गया। यह अभयारण्य अब लगभग 258.71 वर्ग किलोमीटर तक फैल चुका है।

गिरनार पर्वत ( Girnar hill )

गिरनार पर्वत अथवा माउंट गिरनार गुजरात में पर्वत की सबसे ऊंची चोटी है। ये बौद्ध, हिंदुओं और जैनियों का पवित्र स्थान है। पर्वत की चोटी पर कई मंदिर हैं, जिनके दर्शन के लिये सैकड़ों श्रद्धालु यहां आते हैं। लेकिन यहां आने वाले लोगों को ये नहीं पता, कि पर्वत की तलहटी में कई राजवंशों के कई अभिलेख हैं। इन्हें “गिरनार अभिलेख” कहा जाता है। इनसे प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। ये अभिलेख क़रीब दस फुट ऊंची चट्टान पर उकेरे गए हैं। इनका संबंध प्राचीन भारत के तीन शक्तिशाली राजाओं से है। इस पर महान मौर्य शासक अशोक का ऐलान और धर्मोपदेश, जलाशय की मरम्मत करने का क्षत्रप (शक) शासक रुद्रमन का आदेश और गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का ब्रह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में अभिलेख उकेरा गया है। ये सभी अभिलेख एक ही चट्टान पर अंकित हैं। गिरनार पर्वत प्राचीन समय से ही पवित्र स्थान रहे हैं। पर्वत की पांच चोटियों पर जैन और हिंदू मंदिरों के समूह तथा कई बौद्ध गुफाएं हैं। माना जाता है, कि ये 22वें जैन तीर्थंकर नेमीनाथ की निर्वाण भूमि थी। नेमीनाथ को समर्पित 11वीं सदी का एक मंदिर, इस पर्वत के मुख्य आकर्षणों में से एक है। अन्य महत्वपूर्ण मंदिर हैं- 19वीं सदी का तीर्थंकर मल्लीनाथ, अंबा माता मंदिर और गोरखनाथ मंदिर। गिरनार की तलहटी में जूनागढ़ शहर है, जिसका इतिहास क़रीब 2,300 साल पुराना है। ये मौर्य राजवंश का प्रांतीय सत्ता केंद्र हुआ करता था। मौर्य भारत में सबसे शक्तिशाली राजवंशों में एक था, जिसने 321-185ई.पू. में शासन किया था। गिरनार अभिलेख से क़रीब दो कि.मी. के फ़ासले पर 2,300 साल पुराना उपरकोट क़िला है, जिसका निर्माण अशोक के दादा चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य ने ही मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त मौर्य ने 321-297 ई.पू. के दौरान शासन किया था। गिरनार अभिलेखों के अनुसार इस क्षेत्र पर बाद में पश्चिमी क्षत्रपों और गुप्ताओं का शासन हो गया था। सन 475 और सन 767 के दौरान यहां मैत्रक राजवंश का शासन हो गया और फिर 9वीं से लेकर 15वीं सदी तक यहां चुडासमा राजवंश राज करने लगा। इनके बाद 16वीं सदी में यहां मुग़ल साम्राज्य क़ायम हो गया। इन अभिलेखों में सबसे पुराना उकेरा गया अभिलेख अशोक का फ़रमान (गिरनार रॉक ईडिक्ट) है। अशोक मौर्य राजवंश का तीसरा और सबसे शक्तिशाली राजा था, जिसने 273-236 ई.पू. के दौरान राज किया था। अशोक के शासनकाल में हुई प्रमुख घटनाओं में भीषण कलिंग युद्ध भी था। इस युद्ध में हुए नरसंहार के बाद अशोक को इतनी ग्लानि हुई, कि उसने बौद्ध धर्म अपना लिया था। धम्म (धर्म) की अपनी समझ के आधार पर अशोक ने अपने पूरे साम्राज्य में अभिलेख तैयार करवाये थे। मौजूदा समय के तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी क्षेत्रों के सिवाय लगभग पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में अशोक का साम्राज्य फैला हुआ था। अशोक के अभिलेख, जिन्हें फ़रमान कहा जाता है, से ही हमें अशोक के बारे में प्रमाणिक जानकारियां मिलती हैं। ये फ़रमान सार्वजनिक स्थानों, व्यापार मार्गों और धार्मिक महत्व के स्थानों पर लगाये गये थे, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इन्हें पढ़ सकें। ये शिला फ़रमान अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म के प्रसार के बारे में जानकारी के वास्तविक स्रोत हैं। अशोक के फ़रमानों को उनकी विषय वस्तु और जिन सतह पर वे उकेरे गए हैं, उनके आधार पर वर्गीकृत किया है। ये वर्ग हैं चट्टानों पर उकेरे गए सामान्य फ़रमान, चट्टानें पर उकेरे गए 14 प्रमुख फ़रमान, स्तंभों पर सात उकेरे गए फ़रमान, स्तंभों पर उकेरे गए सामान्य फ़रमान और गुफाओं में उकेरे गए अभिलेख। छोटी चट्टानों और छोटे स्तंभों पर उकेरे गए फ़रमान धर्म संबंधी हैं, जबकि बड़ी चट्टानों और स्तंभों पर उकेरे गए फ़रमान राजनीति तथा नैतिकता से संबंधित हैं। 14 प्रमुख फ़रमानों में अधिकतर धर्मोपदेश और अशोक के उत्तराधिकारियों तथा अधिकारियों के लिये घोषणाएं हैं। इनमें निर्देश दिया गया था, कि साम्राज्य को कैसे चलाया जाए। ये फ़रमान 257-256 ई.पू. में जारी किये गये थे। गिरनार में ये फ़रमान चट्टान की पूर्वोत्तर दिशा में दो पंक्तियों में उकेरे गए हैं, जिनके बीच एक रेखा खिंची हुई है। इन फ़रमानों से अशोक और उसके शासन के बारे बहुत-सी जानकारियां मिलती हैं। अशोक पशु बलि के ख़िलाफ़ था और उसके शासनकाल में लोगों और पशुओं के लिये आश्रय, जल और इलाज की व्यवस्था थी। उसने धम्म (धर्म) की स्थापना और इसके प्रसार के लिये धम्म-महामात्रों (धर्म-महामात्रों) की नियुक्ति की थी। इसके अलावा उसने धम्म-यात्राएं शुरु की थीं और धार्मिक सहिष्णुता पर ज़ोर दिया था। फ़रमान XIII (13) में लिखा है, कि कैसे कलिंग युद्ध ने उसे ग्लानि से भर दिया था और कैसे उसके जीवन में बदलाव आया और वह धम्म (धर्म) के रास्ते पर चल निकला। मौर्य राजवंश के पतन के बाद इस क्षेत्र पर पश्चिमी क्षत्रपों का शासन हो गया, जो मूलत: मध्य एशिया के शक (स्किथियंस) थे। रुद्रदमन का गिरनार अभिलेख ब्रह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में उकेरा गया पहला विस्तृत अभिलेख है। रुद्रदमन प्रथम पश्चिमी क्षत्रपों की कार्दमक शाखा का शासक था, जिसने सातवाहनों को हराया था। उसे महा-क्षत्रप का ख़िताब मिला था। रुद्रदमन का गिरनार अभिलेख बहुत दिलचस्प है, क्योंकि इससे हमें प्राचीन भारत में जल-प्रबंधन के बारे में जानकारी मिलती है। प्राचीन समय में सरकार के महत्वपूर्ण कामों में एक काम झीलों, जलाशयों और तालाबों का निर्माण तथा इनका रखरखाव करना था। logo दैनिक इतिहास वीडियो जीवित धरोहर हमारे बारे में English FOLLOW US ON क्या कहती हैं गिरनार अभिलेखों में लिखी कहानियां क्या कहती हैं गिरनार अभिलेखों में लिखी कहानियां जान्हवी पाटगांवकर April 25th 2021 SHARE गिरनार पर्वत अथवा माउंट गिरनार गुजरात में पर्वत की सबसे ऊंची चोटी है। ये बौद्ध, हिंदुओं और जैनियों का पवित्र स्थान है। पर्वत की चोटी पर कई मंदिर हैं, जिनके दर्शन के लिये सैकड़ों श्रद्धालु यहां आते हैं। लेकिन यहां आने वाले लोगों को ये नहीं पता, कि पर्वत की तलहटी में कई राजवंशों के कई अभिलेख हैं। इन्हें “गिरनार अभिलेख” कहा जाता है। इनसे प्राचीन भारतीय इतिहास के बारे में कई महत्वपूर्ण जानकारियां मिलती हैं। ये अभिलेख क़रीब दस फुट ऊंची चट्टान पर उकेरे गए हैं। इनका संबंध प्राचीन भारत के तीन शक्तिशाली राजाओं से है। इस पर महान मौर्य शासक अशोक का ऐलान और धर्मोपदेश, जलाशय की मरम्मत करने का क्षत्रप (शक) शासक रुद्रमन का आदेश और गुप्त सम्राट समुद्रगुप्त का ब्रह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में अभिलेख उकेरा गया है। ये सभी अभिलेख एक ही चट्टान पर अंकित हैं। चट्टान पर अंकित अभिलेख | गुजरात टूरिज्म गिरनार पर्वत प्राचीन समय से ही पवित्र स्थान रहे हैं। पर्वत की पांच चोटियों पर जैन और हिंदू मंदिरों के समूह तथा कई बौद्ध गुफाएं हैं। माना जाता है, कि ये 22वें जैन तीर्थंकर नेमीनाथ की निर्वाण भूमि थी। नेमीनाथ को समर्पित 11वीं सदी का एक मंदिर, इस पर्वत के मुख्य आकर्षणों में से एक है। अन्य महत्वपूर्ण मंदिर हैं- 19वीं सदी का तीर्थंकर मल्लीनाथ, अंबा माता मंदिर और गोरखनाथ मंदिर। गिरनार के जैन मंदिर | विकिमीडिआ कॉमन्स गिरनार की तलहटी में जूनागढ़ शहर है, जिसका इतिहास क़रीब 2,300 साल पुराना है। ये मौर्य राजवंश का प्रांतीय सत्ता केंद्र हुआ करता था। मौर्य भारत में सबसे शक्तिशाली राजवंशों में एक था, जिसने 321-185ई.पू. में शासन किया था। गिरनार अभिलेख से क़रीब दो कि.मी. के फ़ासले पर 2,300 साल पुराना उपरकोट क़िला है, जिसका निर्माण अशोक के दादा चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य ने ही मौर्य राजवंश की स्थापना की थी। चंद्रगुप्त मौर्य ने 321-297 ई.पू. के दौरान शासन किया था। गिरनार अभिलेखों के अनुसार इस क्षेत्र पर बाद में पश्चिमी क्षत्रपों और गुप्ताओं का शासन हो गया था। सन 475 और सन 767 के दौरान यहां मैत्रक राजवंश का शासन हो गया और फिर 9वीं से लेकर 15वीं सदी तक यहां चुडासमा राजवंश राज करने लगा। इनके बाद 16वीं सदी में यहां मुग़ल साम्राज्य क़ायम हो गया। इन अभिलेखों में सबसे पुराना उकेरा गया अभिलेख अशोक का फ़रमान (गिरनार रॉक ईडिक्ट) है। अशोक मौर्य राजवंश का तीसरा और सबसे शक्तिशाली राजा था, जिसने 273-236 ई.पू. के दौरान राज किया था। अशोक के शासनकाल में हुई प्रमुख घटनाओं में भीषण कलिंग युद्ध भी था। इस युद्ध में हुए नरसंहार के बाद अशोक को इतनी ग्लानि हुई, कि उसने बौद्ध धर्म अपना लिया था। धम्म (धर्म) की अपनी समझ के आधार पर अशोक ने अपने पूरे साम्राज्य में अभिलेख तैयार करवाये थे। मौजूदा समय के तमिलनाडु और केरल जैसे दक्षिणी क्षेत्रों के सिवाय लगभग पूरे भारतीय उप-महाद्वीप में अशोक का साम्राज्य फैला हुआ था। अशोक के अभिलेख, जिन्हें फ़रमान कहा जाता है, से ही हमें अशोक के बारे में प्रमाणिक जानकारियां मिलती हैं। Support Live History India अगर आपको लिव हिस्ट्री इंडिया का काम पसंद आता है, तो अपने सहयोग से हमें प्रोत्साहित करें। कोई भी योगदान छोटा नहीं होता और इसमें आपका ज़्यादा समय भी नहीं लगेगा। आपके योगदान के लिए धन्यवाद। *TERMS AND CONDITIONS अशोक का एक चित्रण ये फ़रमान सार्वजनिक स्थानों, व्यापार मार्गों और धार्मिक महत्व के स्थानों पर लगाये गये थे, ताकि ज़्यादा से ज़्यादा लोग इन्हें पढ़ सकें। ये शिला फ़रमान अशोक के संरक्षण में बौद्ध धर्म के प्रसार के बारे में जानकारी के वास्तविक स्रोत हैं। अशोक के फ़रमानों को उनकी विषय वस्तु और जिन सतह पर वे उकेरे गए हैं, उनके आधार पर वर्गीकृत किया है। ये वर्ग हैं चट्टानों पर उकेरे गए सामान्य फ़रमान, चट्टानें पर उकेरे गए 14 प्रमुख फ़रमान, स्तंभों पर सात उकेरे गए फ़रमान, स्तंभों पर उकेरे गए सामान्य फ़रमान और गुफाओं में उकेरे गए अभिलेख। छोटी चट्टानों और छोटे स्तंभों पर उकेरे गए फ़रमान धर्म संबंधी हैं, जबकि बड़ी चट्टानों और स्तंभों पर उकेरे गए फ़रमान राजनीति तथा नैतिकता से संबंधित हैं। 14 प्रमुख फ़रमानों में अधिकतर धर्मोपदेश और अशोक के उत्तराधिकारियों तथा अधिकारियों के लिये घोषणाएं हैं। इनमें निर्देश दिया गया था, कि साम्राज्य को कैसे चलाया जाए। ये फ़रमान 257-256 ई.पू. में जारी किये गये थे। अशोक के शिला फ़रमान | विकिमीडिआ कॉमन्स गिरनार में ये फ़रमान चट्टान की पूर्वोत्तर दिशा में दो पंक्तियों में उकेरे गए हैं, जिनके बीच एक रेखा खिंची हुई है। इन फ़रमानों से अशोक और उसके शासन के बारे बहुत-सी जानकारियां मिलती हैं। अशोक पशु बलि के ख़िलाफ़ था और उसके शासनकाल में लोगों और पशुओं के लिये आश्रय, जल और इलाज की व्यवस्था थी। उसने धम्म (धर्म) की स्थापना और इसके प्रसार के लिये धम्म-महामात्रों (धर्म-महामात्रों) की नियुक्ति की थी। इसके अलावा उसने धम्म-यात्राएं शुरु की थीं और धार्मिक सहिष्णुता पर ज़ोर दिया था। फ़रमान XIII (13) में लिखा है, कि कैसे कलिंग युद्ध ने उसे ग्लानि से भर दिया था और कैसे उसके जीवन में बदलाव आया और वह धम्म (धर्म) के रास्ते पर चल निकला। मौर्य राजवंश के पतन के बाद इस क्षेत्र पर पश्चिमी क्षत्रपों का शासन हो गया, जो मूलत: मध्य एशिया के शक (स्किथियंस) थे। रुद्रदमन का गिरनार अभिलेख ब्रह्मी लिपि में संस्कृत भाषा में उकेरा गया पहला विस्तृत अभिलेख है। रुद्रदमन प्रथम पश्चिमी क्षत्रपों की कार्दमक शाखा का शासक था, जिसने सातवाहनों को हराया था। उसे महा-क्षत्रप का ख़िताब मिला था। रुद्रदमन का चांदी का सिक्का | विकिमीडिआ कॉमन्स रुद्रदमन का गिरनार अभिलेख बहुत दिलचस्प है, क्योंकि इससे हमें प्राचीन भारत में जल-प्रबंधन के बारे में जानकारी मिलती है। प्राचीन समय में सरकार के महत्वपूर्ण कामों में एक काम झीलों, जलाशयों और तालाबों का निर्माण तथा इनका रखरखाव करना था। रुद्रदमन का अभिलेख | विकिमीडिआ कॉमन्स हालांकि तीन शासकों का अपने आप में कोई संबंध नहीं था और ये अलग-अलग युग में हुए थे, लेकिन इनमें एक समानता थी, कि इन्होंने सुदर्शन झील के रखरखाव को जारी रखा। प्राचीन समय में झील सिंचाई का एक स्रोत हुआ करती थीं। सुदर्शन झील गुजरात के सौराष्ट्र क्षेत्र में पानी की महत्वपूर्ण हौजों में एक थी। जूनागढ़ अभिलेख के अनुसार रुद्रदमन प्रथम ने सौराष्ट्र में इस जलाशय की मरम्मत करवाई थी। सुदर्शन झील का निर्माण चंद्रगुप्त मौर्य के शासनकाल में उसके प्रांतीय गवर्नर वैष्य पुष्यगुप्त की देखरेख में हुआ था। चंद्रगुप्त मौर्य के पोते अशोक के शानकाल में क्षेत्र के उसके गवर्नर यवन तुषास्प ने इस जलाशय को और बेहतर कर दिया था। लेकिन क़रीब सन 150 में रुद्रदमन के शासनकाल के दौरान एक भयंकर तूफ़ान आया, जिसमें पेड़ उखड़ गये और पर्वतों की चोटियां, द्वार तथा आश्रय क्षतिग्रस्त हो गये। तूफ़ान में जलाशय भी नष्ट हो गया था। लोग बदहाल हो गये थे और झील को इतना नुकसान हुआ था, कि रुद्रदमन के मंत्रियों को लगा, कि इसकी मरम्मत असंभव है। लेकिन इससे रुद्रदमन विचलित नहीं हुआ और उसने जलाशय की मरम्मत का आदेश दे दिया। सबसे प्रशंसनीय बात ये है, कि रुद्रदमन ने बहुत कम समय में जलाशय फिर बनवाया और उसने इस काम के लिये न तो जनता पर कर लगाये और न ही लोगों से मजबूरन श्रम करवाया। मरम्मत के बाद ये जलाशय चारों तरफ़ से तीन गुना अधिक मज़बूत हो गया था। ये काम सौराष्ट्र के प्रंतीय गवर्नर सुविश्ख की देखरेख में हुआ था। बांध की मरम्मत के अलावा अभिलेख में रुद्रदमन प्रथम की प्रशस्ति भी है। अभिलेख में रुद्रदमन के साम्राज्य का उल्लेख है, जिसमें मालवा, गुजरात, सिंध और पश्चिमी महाराष्ट्र के हिस्से भी थे। अभिलेख में रुद्रदमन प्रथम के व्यक्तित्व का विस्तार से वर्णन है। इसके अनुसार रुद्रदमन प्रथम उदार राजा था जिसकी प्रजा उससे प्रेम करती थी। कहा जाता है, कि वह पढ़ा लिखा था और उसने काव्यों की रचना की थी। युद्ध के अलावा वह लोगों की हत्या करने में विश्वास नहीं करता था। वह लोगों को उपहार भी देता था। अभिलेख में जूनागढ़ और गिरनार के प्राचीन नामों का भी उल्लेख मिलता है। जूनागढ़ शहर का प्राचीन नाम गिरिनगर और माउंट गिरनार का प्राचीन नाम उरजयत था। रुद्रदमन के जूनागढ़ अभिलेख से पता चलता है, कि प्राचीन भारत में घटनाओं का रिकॉर्ड रखने की परंपरा थी। रुद्रदमन ने अपने समय के पहले जलाशय के लिये किये गये काम का उल्लेख किया है। पश्चिमी क्षत्रपों के पतन के बाद इस क्षेत्र पर गुप्त शासकों का राज हो गया। चट्टान पर उकेरा गया तीसरा अभिलेख कुमारगुप्त प्रथम के पुत्र राजा स्कंदगुप्त का है। स्कंदगुप्त ने सन 455 से लेकर सन 467 तक शासन किया था। संस्कृत भाषा में लिखा अभिलेख दो हिस्सों में बंटा हुआ है, पहला हिस्सा सुदर्शन झील की मरम्मत से संबंधित है और दूसरा हिस्से में दो मंदिरों के निर्माण का ज़िक्र है। कहा जाता है, कि स्कंदगुप्त ने गुप्त साम्राज्य बहाल किया था। अभिलेख की शुरुआत में लिखा हुआ है, कि कैसे स्कंदगुप्त ने अपने दुश्मनों को हराया। माना जाता है, कि ये दुश्मन हूण के अलावा कोई और नहीं थे। ये दोनों काम स्कंदगुप्त के शासनकाल में परदत्त के पुत्र चक्रपालिता की देखरेख में हुए थे, जो सौराष्ट्र का गवर्नर था। लगभग सन 455-456 में भीषण वर्षा की वजह से सुदर्शन झील के तट फिर टूट गये। चक्रपालिता ने सन 456-457 के क़रीब दो महीने के भीतर तटों की मरम्मत करवा दी थी। बाद में स्कंदगुप्त के शासनकाल के दौरान चक्रपालिता ने गिरनार पर्वत पर विष्णु के समर्पित एक मंदिर बनाया, जिसका नाम चक्रभृत (चक्र धारण करने वाला) था। इसके अलावा उसने शहर की तरफ़ एक और मंदिर बनवाया। स्कंदगुप्त अंतिम सफल गुप्त राजा था, जिसके बाद गुप्त राजवंश का पतन होने लगा। गिरनार अभिलेखों की खोज सबसे पहले अंग्रेज़ सैनिक अधिकारी और विद्वान जेम्स टॉड ने सन 1822 में की थी। अभिलेखों का अनुवाद प्राच्यविद् और विद्वान जेम्स प्रिंसेप ने सन 1837 में किया था। बाद में पुरातत्वविद डॉ. जेम्स बर्गीस और भगवानलाल इंद्रजी, भारतीय इतिहास के फ्रांसिसी ज्ञाता एमिल सेनर और जर्मन ज्ञाता लॉरेंज़ फ़्रांज़ कीहॉर्न जैसे विद्वानों ने गिरनार अभिलेखों पर काम किया। इससे प्राचीन भारतीय राजवंशों के समझने में मदद मिली, जो तब भुलाई जा चुकी थीं। गिरनार अभिलेख आज भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के संरक्षण में हैं। यह पवित्र पर्वत जिसे रेवतक पर्वत के नाम से भी जाना जाता है, मैदानी इलाकों से नाटकीय रूप से ऊपर उठता है, जैन और हिंदू मंदिरों से घिरा हुआ है। दूर-दूर से तीर्थयात्री शिखर तक 10,000 पत्थर की सीढ़ियों पर चढ़ने के लिए आते हैं, जो भोर में शुरू करना सबसे अच्छा है। यदि आप सबसे ऊपर के मंदिरों तक पहुँचना चाहते हैं तो पूरा दिन बिताने के लिए तैयार रहें। सुबह की रोशनी में चढ़ना एक जादुई अनुभव है, क्योंकि तीर्थयात्री और कुली सीढ़ियों पर चढ़ते हैं। जैन मंदिर, मोज़ेक से सजे गुंबदों का एक समूह है, जिसमें विस्तृत स्तूप हैं, जो लगभग दो-तिहाई ऊपर हैं। सबसे बड़ा और सबसे पुराना 12वीं सदी का नेमिनाथ मंदिर है, जो 22वें तीर्थंकर को समर्पित है: पहले द्वार के बाद पहले बाएं हाथ के द्वार से गुजरें। कई मंदिर सुबह 11 बजे से दोपहर 3 बजे तक बंद रहते हैं, लेकिन यह मंदिर पूरे दिन खुला रहता है। नौवें तीर्थंकर को समर्पित मल्लिनाथ का पास का तिहरा मंदिर, 1177 में दो भाइयों द्वारा बनवाया गया था। त्योहारों के दौरान, इस मंदिर में कई भिक्षु और आध्यात्मिक प्रमुख आते हैं। आगे की ओर कई हिंदू मंदिर हैं। पहली चोटी पर अंबा माता का मंदिर है, जहाँ नवविवाहित जोड़े सुखी वैवाहिक जीवन सुनिश्चित करने के लिए पूजा करते हैं। यहाँ से आगे अन्य चार चोटियों और अन्य मंदिरों तक पहुँचने के लिए काफ़ी नीचे और ऊपर की ओर जाना पड़ता है। गोरखनाथ का मंदिर गुजरात की सबसे ऊँची चोटी पर 1117 मीटर की ऊँचाई पर स्थित है। दत्तात्रेय की खड़ी चोटी के ऊपर विष्णु के तीन मुख वाले अवतार का मंदिर है। अंतिम चट्टान के ऊपर, कालिका देवी काली का मंदिर है। संक्षिप्त इतिहास: गिरनार पहाड़ी को 22वें तीर्थंकर भगवान नेमिनाथ की निर्वाण भूमि माना जाता है। तीर्थंकर की याद में एक मंदिर 11 वीं शताब्दी में बनाया गया था। यात्रा का सबसे अच्छा समय: यहाँ आने का सबसे अच्छा समय नवंबर से फरवरी के बीच है। माघ (जनवरी-फरवरी) के महीने में पाँच दिनों तक चलने वाला भवनाथ मेला गिरनार तलेटी के भवनाथ महादेव मंदिर में लोक संगीत और नृत्य तथा नागों (शैव संतों) की भीड़ लेकर आता है। यह वह समय है जब माना जाता है कि शिव ने विनाश का अपना ब्रह्मांडीय नृत्य किया था। गिरनार परिक्रमा उत्सव नवंबर में आयोजित किया जाता है।

दामोदर कुंड ( Damodar Kund )

जूनागढ़ के लोगों का मानना ​​है कि उनके पहाड़ों की तरह ही उनकी झीलें भी पवित्र हैं। गिरनार पहाड़ी की तलहटी में स्थित दामोदर कुंड झील गुजरात की पवित्र झीलों में से एक है। देश भर से लोग दिवंगत आत्माओं का अंतिम संस्कार करने और झील में अस्थियाँ और राख विसर्जित करने के लिए दामोदर कुंड आते हैं। झील के किनारे, दामोदर, राधा, बलदेव और वाघेश्वरी के मंदिर देखे जा सकते हैं, जिन्हें माना जाता है कि चंद्रकेतपुर नामक सूर्यवंशी शासक ने बनवाया था। दामोदर कुंड का संबंध प्रसिद्ध कवि नरसिंह मेहता से भी है, जो गुजराती थे और भगवान कृष्ण के भक्त थे। इसके अलावा, झील के किनारे स्थित नरसिंह मेहता मंदिर भी देखने लायक है। झील के पास दो छोटे जलाशय हैं- रेवती कुंड और मृगी कुंड, जहाँ तीर्थयात्री डुबकी लगाकर अपने पापों से मुक्ति पाने के लिए आते हैं। शिवरात्रि के त्यौहार के दौरान झील में जान आ जाती है। साथ ही, हिंदू कैलेंडर के अनुसार भादरवा महीने की अमावस्या के दिन एक मेले का आयोजन भी किया जाता है। झील को देखने के बाद, कोई भी कह सकता है कि प्रकृति के निर्माण में भगवान का बहुत बड़ा हाथ है।

सोमनाथ मंदिर ( Somnath Temple )

सोमनाथ मंदिर गुजरात के पश्चिमी तट पर सौराष्ट्र में वेरावल बंदरगाह के पास प्रभास पाटन में स्थित है। यह मंदिर भारत में भगवान शिव के बारह ज्योतिर्लिंग मंदिरों में से पहला माना जाता है। यह गुजरात का एक महत्वपूर्ण तीर्थ और पर्यटन स्थल है। प्राचीन समय में इस मंदिर को कई मुस्लिम आक्रमणकारियों और पुर्तगालियों द्वारा बार-बार ध्वस्त करने के बाद वर्तमान हिंदू मंदिर का पुनर्निर्माण वास्तुकला की चालुक्य शैली में किया गया। सोमनाथ का अर्थ है, “भगवानों के भगवान”, जिसे भगवान शिव का अंश माना जाता है। गुजरात का सोमनाथ मंदिर भगवान शिव को समर्पित है। यह मंदिर ऐसी जगह पर स्थित है जहां अंटार्कटिका तक सोमनाथ समुद्र के बीच एक सीधी रेखा में कोई भूमि नहीं है। सोमनाथ मंदिर के प्राचीन इतिहास और इसकी वास्तुकला और प्रसिद्धि के कारण इसे देखने के लिए देश और दुनिया से भारी संख्या में पर्यटक यहां आते हैं। माना जाता है कि सोमनाथ मंदिर का निर्माण स्वयं चंद्रदेव सोमराज ने किया था। इसका उल्लेख ऋग्वेद में किया गया है। इतिहासकारों का मानना है कि गुजरात के वेरावल बंदरगाह में स्थित सोमनाथ मंदिर की महिमा और कीर्ति दूर-दूर तक फैली थी। अरब यात्री अल बरूनी ने अपने यात्रा वृतान्त में इसका उल्लेख किया था,जिससे प्रभावित होकर महमूद गजनवी ने सन 1024 में अपने पांच हजार सैनिकों के साथ सोमनाथ मंदिर पर हमला किया और उसकी सम्पत्ति लूटकर मंदिर को पूरी तरह नष्ट कर दिया। उस दौरान सोमनाथ मंदिर के अंदर लगभग पचास हजार लोग पूजा कर रहे थे, गजनवी ने सभी लोगों का कत्ल करवा दिया और लूटी हुई सम्पत्ति लेकर भाग गया। इसके बाद गुजरात के राजा भीम और मालवा के राजा भोज ने इसका दोबारा निर्माण कराया। सन् 1297 में जब दिल्ली सल्तनत ने गुजरात पर अपना कब्जा किया तो सोमनाथ मंदिर को पाँचवीं बार गिराया गया। मुगल बादशाह औरंगजेब ने 1702 में आदेश दिया कि यदि हिंदू सोमनाथ मंदिर में दोबारा से पूजा किए तो इसे पूरी तरह से ध्वस्त करवा जाएगा। आखिरकार उसने पुनः 1706 में सोमनाथ मंदिर को गिरवा दिया। इस समय सोमनाथ मंदिर जिस रूप में खड़ा है उसे भारत के गृह मंत्री सरदार वल्लभ भाई पटेल ने बनवाया था और पहली दिसंबर 1995 को भारत के राष्ट्रपति शंकर दयाल शर्मा ने इसे राष्ट्र को समर्पित किया था। सोमनाथ मंदिर से जुड़ी कथा बहुत प्राचीन एवं निराली है। किवदंतियों के अनुसार सोम या चंद्र ने राजा दक्ष की सत्ताइस पुत्रियों के साथ अपना विवाह रचाया था। लेकिन वे सिर्फ अपनी एक ही पत्नी को सबसे ज्यादा प्यार करते थे। अपनी अन्य पुत्रियों के साथ यह अन्याय होता देख राजा दक्ष ने उन्हें अभिशाप दिया था कि आज से तुम्हारी चमक और तेज धीरे धीरे खत्म हो जाएगा। इसके बाद चंद्रदेव की चमक हर दूसरे दिन घटने लगी। राजा दक्ष के श्राप से परेशान होकर सोम ने शिव की आराधना शुरू की। भगवान शिव ने सोम की आराधना से प्रसन्न होकर उन्हें दक्ष के अभिशाप से मुक्त किया। श्राप से मुक्त होकर राजा सोम चंद्र ने इस स्थान पर भगवान शिव के मंदिर का निर्माण कराया और मंदिर का नाम रखा गया सोमनाथ मंदिर। तब से यह मंदिर पूरे भारत सहित विश्वभर में विख्यात है। आमतौर पर सभी पर्यटन स्थलों और मंदिरों में कोई न कोई ऐसी विशेषता जरूर होती है जिसके कारण लोग उसे देखने के लिए जाते हैं। सोमनाथ मंदिर की भी अपनी विशेषता है। आइये जानते हैं इस मंदिर के बारे में कुछ रोचक तथ्य क्या हैं। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि सोमनाथ मंदिर में स्थित शिवलिंग में रेडियोधर्मी गुण है जो जमीन के ऊपर संतुलन बनाए रखने में मदद करता है। इस मंदिर के निर्माण में पांच वर्ष लग गए थे। सोमनाथ मंदिर के शिखर की ऊंचाई 150 फीट है और मंदिर के अंदर गर्भगृह, सभामंडपम और नृत्य मंडपम है। सोमनाथ मंदिर को महमूद गजनवी ने लूटा था जो इतिहास की एक प्रचलित घटना है। इसके बाद मंदिर का नाम पूरी दुनिया में विख्यात हो गया। मंदिर के दक्षिण में समुद्र के किनारे एक स्तंभ है जिसे बाणस्तंभ के नाम से जाना जाता है। इसके ऊपर तीर रखा गया है जो यह दर्शाता है कि सोमनाथ मंदिर और दक्षिण ध्रुव के बीच पृथ्वी का कोई भाग नहीं है। यहाँ पर तीन नदियों हिरण, कपिला और सरस्वती का संगम है और इस त्रिवेणी में लोग स्नान करने आते हैं। मंदिर नगर के 10 किलोमीटर में फैला है और इसमें 42 मंदिर है। सोमनाथ मंदिर को शुरूआत में प्रभासक्षेत्र के नाम से भी जाना जाता था और यहीं पर भगवान श्रीकृष्ण ने अपना देहत्याग किया था। माना जाता है कि आगरा में रखे देवद्वार सोमनाथ मंदिर के ही है जिन्हें महमूद गजनवी अपने साथ लूट कर ले गया था। मंदिर के शिखर पर स्थित स्थित कलश का वजन 10 टन है और इसकी ध्वजा 27 फीट ऊँची है। यह भारत के 12 ज्योतिर्लिंग में से पहला ज्योतिर्लिंग है इसकी स्थापना के बाद अगला ज्योतिर्लिंग वाराणसी, रामेश्वरम और द्वारका में स्थापित किया गया था। इस कारण शिव भक्तों के लिए यह एक महान हिंदू मंदिर माना जाता है।

अशोक के शिलालेख

अशोक के शिलालेख गिरनार पर्वत की ओर जाने वाले मार्ग पर स्थित हैं। यह शिलालेख एक बहुत बड़ा पत्थर है जिसे सड़क किनारे एक छोटी सी इमारत में रखा गया है। शिलालेखों पर सम्राट अशोक के चौदह शिलालेख खुदे हुए हैं। शिलालेखों पर पाली भाषा में ब्राह्मी लिपि है और ये 250 ईसा पूर्व के हैं। उसी पत्थर पर संस्कृत भाषा में भी शिलालेख खुदे हुए हैं। अशोक के शिलालेखों में नैतिक व्याख्यान शामिल हैं। सम्राट अशोक ने जूनागढ़ का इतिहास इसी पत्थर पर लिखना शुरू किया था। पाली में लिखे उनके 14 शिलालेखों में कहा गया है कि वे देवताओं के प्रिय हैं और अपनी सभी प्रजा का ख्याल रखते हैं।

महाबत मकबरा

गुजरात के जूनागढ़ में ऐसा ही एक मकबरा है जिसकी वास्तुकला इंडो-इस्लामिक और फ्रेंच तीनों शैलियों का मिश्रण है| जूनागढ़ जंक्शन से महज कुछ किमी की दूरी पर ही मौजूद महबत का मकबरा को बहादुरुद्दीन भाई हसनभाई का मकबरा भी कहा जाता है। यह गुजरात के उन ऐतिहासिक चुनिंदा जगहों में से एक है, जिन्हें गुजरात घूमने आने वाले हर पर्यटक को अपनी लिस्ट में शामिल करना चाहिए। जानकारी के अनुसार वर्ष 1878 में महाबत खानजी के आदेश पर इस मकबरे का निर्माण शुरू हुआ था। महाबत खानजी जूनागढ़ के छठवें नवाब थे। 1892 में उनके उत्तराधिकारी बहादुर कांजी ने इसका निर्माण पूरा करवाया था। मकबरे में महाबत खान द्वितीय और नवाब रसूर खानजी के मंत्री बहादुरुद्दीन भाई हसनभाई की कब्रें हैं। वर्ष 1947 में जब भारत को आजादी मिली, तो जूनागढ़ के तत्कालिन शासक महाबत खान तृतिय ने जूनागढ़ भारत के बजाय पाकिस्तान में शामिल होने के लिए सहमत होने की घोषणा कर दी। हालांकि इस राज्य की कोई भी सीमा नये बने देश पाकिस्तान के साथ नहीं मिलती थी। लेकिन जूनागढ़ की हिंदू आबादी ने विलय के खिलाफ एक गंभीर विद्रोह छेड़ दिया जिससे शासक का पतन हो गया। अंत में, महाबत खान तृतिय ने भारत छोड़ने का फैसला कर लिया। आजादी के बाद जूनागढ़ को भारत सरकार के हाथों में छोड़कर, वह पाकिस्तान के सिंध प्रांत में बस गए। महाबत का मकबरा अपनी शानदार वास्तुकला के कारण काफी प्रसिद्ध है। मकबरा परिसर की सबसे बड़ी खासियत है कि इसकी फर्श से लेकर लिंटेल तक फ्रेंच वास्तुकला है। दरवाजे और स्तंभों में गॉथिक वास्तुकला का शानदार काम किया गया है। मकबरा परिसर में गुंबदनुमा बनावट का जटिल समूह है जिसे देखकर किसी की भी आंखें बस फटी की फटी रह जाती हैं। अगर इस मकबरे को एक झकल देखी जाए तो यह बिल्कुल ताजमहल जैसा ही दिखता है। मुख्य गोलाकार गुंबदनुमा आकृति के चारों तरफ चार मीनारें हैं, जिनके चारों गोलाकार में सीढ़ियां बनी हुई हैं। ये सीढ़ियां इसकी खूबसूरती को कई गुना बढ़ा देती है। मकबरे की मीनारों पर पत्थर से सुन्दर नक्काशी की गयी है। मकबरा के अंदर कई हवेली भी मौजूद हैं, जिनमें लकड़ी का काफी सुन्दर काम किया गया है। लकड़ी पर की गयी ये नक्काशियां गुजरात की घरेलू वास्तुकला से काफी हद तक मिलती-जुलती है। अगर आप जूनागढ़ में महाबत का मकबरा घूमने जाना चाहते हैं तो सबसे अच्छा समय नवंबर से फरवरी माह के बीच का है, क्योंकि उमस वाली गर्मी से आपको परेशानी नहीं होगी। बहादुरुद्दीनभाई हसनभाई का मकबरा केवल बाहर से ही देखा जा सकता है।

बौद्ध गुफ़ाएँ

जूनागढ़ बौद्ध गुफा समूह भारतीय राज्य गुजरात के जूनागढ़ जिले में स्थित हैं। तथाकथित “बौद्ध गुफाएं” वास्तव में गुफाएं नहीं हैं, लेकिन पत्थरों से बने तीन अलग-अलग साइटें भिक्षुओं के क्वार्टर के रूप में उपयोग की जाती हैं। इन गुफाओं को सम्राट अशोक की अवधि से लेकर चौथी शताब्दी ईस्वी तक बना दिया गया था। खापरा कोडिया गुफाएं सबसे पुरानी, ​​खापरा कोडिया गुफाएं, दीवार पर लिपियों और छोटे कर्सर अक्षरों के आधार पर सम्राट अशोक के शासनकाल के दौरान तीसरी शताब्दी ईसा पूर्व की तारीखें हैं और सभी गुफा समूहों के सबसे स्पष्ट हैं। इन गुफाओं को खंगार महल भी कहा जाता है। वे सम्राट अशोक के शासनकाल में जीवित चट्टान में बने थे और उन्हें क्षेत्र में सबसे पुराना मठवासी समझौता माना जाता है। ये गुफाएं प्राचीन सुदर्शन झील के किनारे हैं (जो अब मौजूद नहीं है) और उत्तरवर्ती किले के बाहर, पूर्वोत्तर। वे एक पूर्व-पश्चिम अनुदैर्ध्य रिज में बनाये गये हैं। गुफाएं क्षेत्र में छोटी हैं। लेकिन, इसमें पश्चिमी तरफ और ‘एल’ आकार के निवास पर पानी के टैंक डिजाइन का अद्वितीय वास्तुकला है। वास काल के दौरान भिक्कस द्वारा गुफाओं का उपयोग किया जाता था। कई वर्षों के उपयोग के बाद, उन्हें त्याग दिया गया क्योंकि उसमें दरारें जीवित क्वार्टर में घूमती हैं, जिससे उन्हें अनुपयोगी बना दिया जाता है। कई खातों का कहना है कि इसके बाद, भिक्षु महाराष्ट्र के लिए चले गए, जहां वे कई समान और अधिक विस्तृत संरचनाओं को बनाने के लिए गए। खापरा कोडिया को बाद में उत्खनन से क्षतिग्रस्त कर दिया गया था, और अब केवल सर्वोच्च कहानी बनी हुई है। बाबा प्यारे गुफाएं बावा प्यारा गुफाएं दक्षिणी रूप से उपकोट किले परिसर के बाहर, मोधिमथ के पास स्थित हैं। खापारा कोडिया गुफाओं की तुलना में ये अधिक बरकरार हैं। गुफाओं का निर्माण द्वितीय शताब्दी ईस्वी में सातवाहन शासन के दौरान किया गया था। जुआनजांग के यात्रा खाते के मुताबिक वे पहली शताब्दी में एडी उत्तरी समूह में चार गुफाएं थीं। दक्षिण पूर्वी समूह में चैत्य और विशाल अदालत है। समूह में तीन मंजिलों में मॉडलिंग की गई 13 गुफाएं हैं, जो 45 मीटर में नक्काशीदार हैं। (150 फीट) लंबा, बौद्ध वास्तुकला से प्रभावित है। बावा प्यारा गुफाओं में बौद्ध धर्म और जैन धर्म दोनों की कलाकृतियां शामिल हैं। उपरकोट गुफाएं 300 फीट गहरी घास के बाहर उपरकोट में स्थित ये गुफाएं, आदि कीदी वाव के करीब, दूसरी तीसरी शताब्दी एडी में बनाई गई थीं। इन गुफाओं में ग्रेको-सिथियन शैली के संयोजन के साथ सतवाना वास्तुकला का प्रभाव है। एएसआई के अनुसार “गुफा समूह तीन स्तरों में है, प्रत्येक दीर्घाओं के सभी सदस्यों को सेमी-रिलीफ में दिखाया गया है, लेकिन केवल दो मंजिला नियमित फर्श हैं। ऊपरी मंजिल में एक गहरी टैंक है, जो पश्चिम और उत्तर-पश्चिम की तरफ वर्ंधाओं और कक्षसन के साथ तीन तरफ से ढकी हुई है। निचली मंजिल गलियारे और खंभे के साथ है। निचले तल में उत्कृष्ट नक्काशीदार खंभे हैं जिनके आधार, शाफ्ट और पूंजी अद्वितीय सजावटी डिजाइन लेते हैं। “इन गुफाओं को खूबसूरत खंभे और प्रवेश, पानी के पलटन, घोड़े की नाल के आकार की चैत्य खिड़कियां, एक असेंबली हॉल और ध्यान के लिए सेल के साथ गिल्ड किया जाता है।

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